Sunday 8 January 2012

vo ek nv vdhu thi

वो एक भरा पूरा घर था, गाँव का घर, जन्हा सामने गली से लगी आधी दीवाल किसी दुकान के कोउन्टर की तरह थी, उसी घरमे आई थी एक नव वधु, जो थोड़ी अहंकारी, आलसी, मायके के गरूर से भरी थी. घने पहनती थी, सोने की करधनी और बारीक़ तारों से बने सोने के कंगन, किन्तु  पति se रूठती भी बहुत थी, पति उसके सीधे, ये गर्वीली  आंधी तूफान , पहली बार आकार ही मायके लौटी थी.
जन्हा शायद कोई था, वो किसी मन्दिर में दिया जलाती थी,  जन्हा गर्भ grh  में साँझ में भी अँधेरा होता, वो मन्दिर दिया लगाने जाने तैयार हुई थी, दिया भी हाथ में ही था, वो अचानक ही मन्दिर न जाकर किसी के कहने में गयी थी, इसी बावली में जो मन्दिर का ही हिस्सा थी, और वंहा dubi थी  सीढियाँ जल में, जन्हा सांप  तैरते थे, उस जगह उसे कोई नजर नही आया, तो वो सीढियों से निचे उतर गई थी, वन्ही पर उसके सर में चोट लगी थी, शायद  बवली का जल लाल हो गया था, वो बेचारी दिया नही जला पाई, न आजतक कोई उस मन्दिर में दिया लगाने गया, न उस बावली  की  सीढियाँ ही उतरा था. वो आज भी बाँट जोहती है की कोई ए और मंदिर में दिया जला दे.....
कुछ सवाल फिर भी अधूरे रह गये की, वो उस आधी दीवाल वाले घर में किस बच्ची को खिलाती थी स्नेह से खाना ...